शुक्रवार, १७ डिसेंबर, २०१०   0 टिप्पणी(ण्या)

आग जलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
                       - दुष्यन्त कुमार


हल्लाबोल या चित्रपटात 'जब तक है दम ... ' या गाण्यामध्ये शेवटी या कवितेचा वापर करण्यात आला आहे. 
सुखविंदर च्या आवाजात तार स्वरात या गाण्याचा शेवट ऐकण्याची मजाच काही और आहे 


हे गाणे ऐकण्यासाठी प्ले च्या चिन्हावर क्लिक करा 




 LovePaki.com .mp3
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उडान चित्रपटातील हे गाणे अतिशय अर्थपूर्ण आणि सुंदर आहे.
घनगंभीर आवाजात अमित त्रिवेदी, न्यूमन पिंटो आणि जोय बरूआ यांनी गायलेही अतिशय उत्तम
चित्रपट देखील सुंदर आहे.

या गाण्याचे गीत खाली देत आहे


चढती लहेरे लांघ ना पाये
क्यों हांफती सी नाव है तेरी ?
तिनका तिनका जोड के सांसे
क्यों नापती सी नाव है तेरी ?
उलटी बहेती धार है बहेरी . . . धार है बहेरी
के अब कुछ कर जा रे बंधू

बिगड चुका क्या बांध बांध ले
है बात ठहेरी जान पे तेरी शान पे तेरी
भैय्याहो की तान साध ले
जो बात ठहेरी जान पे तेरी शान पे तेरी
चल जीत जीत लहेरा जा
चल गुलाल फहरा जा
अब कर जा तु या मर जा
कर ले तय्यारी . . .
उड जा बन के धूप का पंछी
छुडा के गहरी, छांव अंधेरी . . . छांव अंधेरी
तिनका तिनका जोड ले सांसे
क्यों हांफती सी नाव है तेरी


रख देगा झकझोर के तुझे
तुफानो का घोर है डेरा . . . घोर है डेरा
भंवर से डर जो हार मान ले
काहे का फिर जोर है तेरा . . . जोर है तेरा
है दिल मे रोशनी तेरे
तु चीर डाल सब घेरे
लहेरो की गर्दन कसके डाल फंदे रे
के दर्या बोले वाह रे ! पंथी
सर आंखो पे नाव है तेरी . . . नाव है तेरी

चढती लहेरे लांघ ना पाये क्यों हांफती सी नाव है तेरी ?
उलटी बहेती धार है बहेरी . . . धार है बहेरी
के अब कुछ कर जा रे बंधू

गीतकार – अमिताभ भट्टाचार्य
चित्रपट – उडान

























हे गीत तुम्हाला खाली ऐकता येईल ....

 Mohan, Joi Barua, Neuman Pinto - 04. Naav .mp3
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  गुरुवार, १६ डिसेंबर, २०१०   0 टिप्पणी(ण्या)

  गुरुवार, ९ डिसेंबर, २०१०   0 टिप्पणी(ण्या)


बालपणीच्या रम्य आठवणींवर अनेक कवींनी सुंदर कविता लिहिल्या आहेत. 
अशीच ही गुलजार यांची सुंदर कविता. 
पण ही केवळ बालपणीच्या रम्य आठवणींची कविता नाही. आपल्या नजरेसमोर जीवलग मित्रांच्या मृत्यू पाहणार्‍या एका प्रतिभावंताची ही कविता आहे.
एका विषयापासून सुरुवात करून अत्यंत वेगळा आणि गंभीर शेवट करण्याची गुलजार यांना विलक्षण हातोटी आहे. गुलजार यांची त्रिवेणी ज्यांनी वाचली असेल त्यांना या त्यांच्या सामर्थ्याची पूर्ण कल्पना असेल ..... 

गाईच्या शेणाच्या गोवर्‍या थापतेवेळी बालवयात खेळलेले खेळ आणि त्याच्या आठवणी मित्राच्या मृत्यूनंतर अस्वस्थ करतात ....
                                                                                                                                                                    
                                                                                                                                                                        कवीस आणि तुम्हा-आम्हासही 

ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -

बरसों बाद - 
मैं श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात 
इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!

                            - गुलज़ार