मंगळवार, १३ जुलै, २०१०   3 टिप्पणी(ण्या)

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर
 नर व्याघ सुयोधन तुमसे
कहो
 कहाँ कब हारा?

क्षमाशील
 हो रिपु-सक्षम
तुम
 हुये विनत जितना ही
दुष्ट
 कौरवों ने तुमको
कायर
 समझा उतना ही

अत्याचार
 सहन करने का
कुफल
 यही होता है
पौरुष
 का आतंक मनुज
कोमल
 होकर खोता है

क्षमा
 शोभती उस भुजंग को
जिसके
 पास गरल हो 
उसका
 क्या जो दंतहीन
विषरहित
 विनीत सरल हो 

तीन
 दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति
 सिंधु किनारे
बैठे
 पढते रहे छन्द
अनुनय
 के प्यारे प्यारे

उत्तर
 में जब एक नाद भी
उठा
 नही सागर से
उठी
 अधीर धधक पौरुष की
आग
 राम के शर से

सिंधु
 देह धर त्राहि-त्राहि
करता
  गिरा शरण में
चरण
 पूज दासता गृहण की
बंधा
 मूढ़ बन्धन में

सच
 पूछो तो शर में ही
बसती
 है दीप्ति विनय की
संधिवचन
 सम्पूज्य उसी का
जिसमे
 शक्ति विजय की

सहनशीलता,
 क्षमा, दया को
तभी
 पूजता जग है
बल
 का दर्प चमकता उसके
पीछे
 जब जगमग है 


- रामधारी
 सिंह दिनकर 

  सोमवार, १२ जुलै, २०१०   0 टिप्पणी(ण्या)


कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
 -    हरिवंशराय बच्चन