सोमवार, १२ जुलै, २०१०   0 टिप्पणी(ण्या)

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले
चश्म-ऐ-तर – साश्रू नयन
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
खुल्द – स्वर्ग, नंदनवन;  कूचे – गल्ली
भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले
कामत – बांधा, शरीराची ठेवण;  दराजी – उंची;                      तुर्रा - तुरा;  पेच-ओ-खम – कुंतल, केसांची बटा
मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले
मनसूब – नाव/संबंध जोडले जाणे;  बादा-आशामी – पिण्याशी
हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले
तव्वको – अपेक्षा, आशा;  खस्तगी – खस्ता;                         खस्ता – मोडकळीस आलेली;      तेग – तलवार
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले
क़ाबे – काबा, देवाचे घर;  काफिर – श्रद्धाहीन  
कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले
मयखाना – मद्य पिण्याची जागा;   वाइज़ – धर्मोपदेशक
- मिर्झा  गालिब

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